Thursday, 14 January 2016

ओ गिलहरी तुझे सुख कौन देता। ...!!!!





मेरी कभी इच्छा नहीं थी 

प्रकृति आदर स्पर्श सही था 

लेकिन इस तरंगिनी ने जो

मांसल लघु थलचर सुंदरी 

मन के आँचल पर जब भागी 

सहसा आँख में राह जगा गयी 

भाव के कोने से निकला तब

लगातार वोह तीव्र छोटी कब 

लम्बी सी पूँछ कोमल सा मुख

बालो से सजी वो छरहरीए

कदम से मैं भी कह गया " ओह गिलहरी" 





शांत सी काले गाढे नयन 

दो हाथो से खाद्य का चयन 

दो दांतों से दिखा रही थी 

प्रकृति नीरसता खा रही थी 

मन ने मेरे लिया विराम था 

पैर सहारे फिर प्रणाम था 

मै जो रुकावट उसके हेतु 

तेज सी भागी वृक्ष था सेतु 

पार कर गयी मंच से गयी 

इस कविता को वो लिख गयी

पूछना था जो पूछ ही लेता 

ओ  गिलहरी तुझे सुख कौन देता ?

                               - विक्रमादित्य 




No comments:

Post a Comment