Monday, 1 February 2016

प्राण ज्योति जब भड़की.....


प्राण ज्योति जब भड़की.....



मनचाहे से रास्ते के राग पकड़ के हम चलते
टूटे फूटे भरोसे बल पर पैर आगे ही बढ़ते
हों कुटी के या महल के सभी साथ आगे बढ़ें
एक लहर में हर पहर में चलता सा सागर उमड़े
चलते चलते समय भी बीते बहुत बीत जाता है जब
हर उमंग या मन का जोश ठहराता सा लगता अब
फिर तोह थकते हारते से यह शरीर व्याकुल होता
आस पास के ढोंगियों को देख मनुष्य भी डरता
आखिर में तोह ऐसा होता की अपनी खिल्ली उड़ती
अब तोह इनकी भर भर करके गालियां सबको पड़ती
ऐसा देख लगता हांफने अँधेरा ही छाएगा
पर हमने भी जान लिया तब कौन बचाने आएगा
दूर सी और एकदम से बन घन गर्जना तब धड़की
चुप्प सी बैठी प्राण ज्योति फिर एक बार जब भड़की

                                                - विक्रमादित्य



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