Monday, 1 February 2016

एक लेखक का अंतर्द्वंद कुछ शब्दों मैं....




मेरा जीवन , मेरा मरण
मैं लिखता हूँ तोह जीता हूँ
सौ सौ साल तक बिना मरे
पर फिर सूझे मुझको न कुछ 
सब विधाएं जाती मेरे परे

पर जब रुकता हूँ तोह रोगी हूँ
पढता हूँ और खो जाता हूँ
कल्पना स्वांग रचता रहता
मिथ्या पर कलम झुकाता हूँ

बस इसी चिंता को लेकर मैं
पत्थर को पहाड़ बनाता हूँ
जो मार्ग का रोड़ा था
ठोकर मारकर तिलमिलाता हूँ

क्या कभी बनूँगा मैं भी
वह उच्च सिंहासन पाउँगा
वह चिंतन और वैसी भाषा
जन्मो तक क्या मैं पाउँगा

यह सोच फिर रोता हूँ
और घटती उम्र बहुत मेरी

एकदम से खिलखिला कर मैं
रूककर थोड़ा भीतर देखूं
रोता मूर्खो की तरह क्यों
यह सब सबको ही चाहिये
राम जा बस करते करते तू

क्या फ़िक्र फिर हो रे मुझको
नवजीवन सा मैं पाता हूँ
और अगले पल ऐनक चढ़ा
जीवन अपना बढ़ाता हूँ
                              - विक्रमादित्य



aey pacchi main bhee teri tarah




ऊंचा उठता उड़ता जाऊं  एय पंछी मैं भी तेरी तरह
आजाद इधर से उधर ... सारा सर मुड़ता जुड़ता पवन प्रवाह
तेरे जो पर अब मुझमे भी ...चल फड फडा फड मस्ती मैं
आजा अब तोह लग जाये होड़ ...चलते है धरा को छोड़ छोड़
सरपट सर्राट सा अब ऊपर .....गोते लगायेंगे अब जीभर
मैं जानू परिंदे चल मैं तू...इस बार यार पूरा यह नभ
हर समा के संग मन की सुनकर ..अब चल रे दोस्त अभी और अब
चलते गाते ...गुन गुन ...धुन धुन ...तू मुझे सुना ..तू मेरी सुन
तेरे पंखों को तू फैला ..मैं संग तेरे मन का विरला
तेरी चहक चै चै का राग ...ऊंचा ऊंचा ...उड़ता  ऊंचा
मेरे भी पर फिर मै बिछा बस तू और मै जायेंगे छा
उस पल निश्चल हम सम रमकर ....और आँखे अपनी धरती पर
कितनी सुंदर अपनी माँ है ....यह पवन ..झरा..झरा ...झर झर

                                                      - विक्रमादित्य

दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो




दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो 
दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो 

पहन लो चोला खून से सना वीर खुद को कहला डालो 
जलते हुए शेर के शव की राख को धारण कर डालो 
ले अपना परचम हाथ ख्याति अपनी फैला डालो 

दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो 
दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो

मैले कुचैले मुह पर एक बूँद अमृत डलवा लो 
छोटे मोटे के खून से बर्तन भर तिलक बना लो 
गढ़े हुए मुर्दों पर अपनी बंदूके तान  डालो 
किसी और के मूह से अपनी बोली को कहला डालो 

दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो
दुनियावालो , ऐ इंसानियत के रखवालो

करके कर्म कुछ ऐसे खुद  महानता का ताज डालो 
हर पल बदले इस समाज की आँख में झलक बना लो 
अपने हितों को लेकर दुनिया का अहित करवा डालो 

दुनियावालो , ऐ कलयुग के तुम रखवालो 
दुनियावालो , ऐ कलयुग के तुम रखवालो

                                             - विक्रमादित्य



प्राण ज्योति जब भड़की.....


प्राण ज्योति जब भड़की.....



मनचाहे से रास्ते के राग पकड़ के हम चलते
टूटे फूटे भरोसे बल पर पैर आगे ही बढ़ते
हों कुटी के या महल के सभी साथ आगे बढ़ें
एक लहर में हर पहर में चलता सा सागर उमड़े
चलते चलते समय भी बीते बहुत बीत जाता है जब
हर उमंग या मन का जोश ठहराता सा लगता अब
फिर तोह थकते हारते से यह शरीर व्याकुल होता
आस पास के ढोंगियों को देख मनुष्य भी डरता
आखिर में तोह ऐसा होता की अपनी खिल्ली उड़ती
अब तोह इनकी भर भर करके गालियां सबको पड़ती
ऐसा देख लगता हांफने अँधेरा ही छाएगा
पर हमने भी जान लिया तब कौन बचाने आएगा
दूर सी और एकदम से बन घन गर्जना तब धड़की
चुप्प सी बैठी प्राण ज्योति फिर एक बार जब भड़की

                                                - विक्रमादित्य